अगर आप सब्ज़ियों की फसल के बाद अब गेहूं बोने की तैयारी कर रहे हैं और बुवाई में देरी हो चुकी है, तो घबराने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। बहुत से किसान मान लेते हैं कि देर से गेहूं बोने पर पैदावार कम होगी, लेकिन सच्चाई यह है कि सही किस्म का चुनाव कर लिया जाए तो पछेती बुवाई भी शानदार मुनाफा दे सकती है।
कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित कुछ खास लेट सॉइंग गेहूं किस्में ऐसी हैं, जो कम समय में पककर अच्छा उत्पादन देती हैं और गर्मी को भी सहन कर लेती हैं। यही वजह है कि दिसंबर के आखिर तक बुवाई करने वाले किसानों के लिए ये किस्में किसी वरदान से कम नहीं हैं। इस लेख में हम आपको ऐसी ही 5 बेहतरीन गेहूं किस्मों के बारे में बता रहे हैं, जो देरी से बुवाई में भी भरपूर पैदावार देकर आपकी मेहनत को पूरा फल देंगी।
दिसंबर के अंतिम सप्ताह तक की गई बुवाई को देरी से बुवाई माना जाता है। इस स्थिति में सामान्य किस्में अपेक्षित उत्पादन नहीं दे पातीं, लेकिन विशेष रूप से विकसित लेट सॉइंग वैरायटियां कम अवधि में पककर अच्छी पैदावार देती हैं। यही वजह है कि आलू और प्याज के बाद गेहूं बोने वाले किसानों के लिए ये किस्में काफी उपयोगी साबित होती हैं।
पूसा ओजस्वी HI-1650 एक बायोफोर्टिफाइड किस्म है, जिसमें जिंक, आयरन और प्रोटीन की मात्रा अधिक पाई जाती है। यह किस्म कम सिंचाई में भी अच्छा प्रदर्शन करती है और चपाती, ब्रेड व बिस्किट के लिए उपयुक्त मानी जाती है। लगभग 115 से 120 दिन में तैयार होने वाली यह किस्म प्रति बीघा 14 से 16 क्विंटल तक उत्पादन देने में सक्षम है। लंबे, चमकदार और एंबर रंग के दाने इसकी प्रमुख पहचान हैं।
यह किस्म जल्दी पकने वाली और उच्च तापमान सहन करने की क्षमता के लिए जानी जाती है। देरी से बुवाई की स्थिति में भी इसका उत्पादन संतोषजनक रहता है। पूसा अहिल्या HI-1634 लगभग 105 से 110 दिन में तैयार हो जाती है और प्रति बीघा 12 से 15 क्विंटल तक पैदावार देती है। चपाती और बिस्किट की गुणवत्ता के कारण यह देशभर में लोकप्रिय हो रही है।
HI 1544 किस्म अपने गोल और चमकदार दानों के कारण बाजार में अच्छी कीमत दिलाती है। यह किस्म 110 से 115 दिन में पककर तैयार हो जाती है और प्रति बीघा 10 से 13 क्विंटल तक उत्पादन देती है। स्वाद और पौष्टिकता के कारण इसे शरबती श्रेणी की किस्म माना जाता है, जो किसानों के लिए लाभकारी विकल्प है।
GW-513 एक उन्नत किस्म है, जिसके दाने चमकीले और आकर्षक होते हैं। इस किस्म की टिलरिंग क्षमता अच्छी होती है, जिससे कम बीज दर में भी अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। यह किस्म क्षेत्र के अनुसार 105 से 117 दिन में तैयार होती है और प्रति बीघा 12 से 15 क्विंटल तक उपज देती है। चपाती और बिस्किट के लिए इसकी गुणवत्ता काफी अच्छी मानी जाती है।
कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, PBW 906, HD 2932, पूसा 111, DL 788-2 (विदिशा), JW 1202, JW 1203, MP 3336 और राज 4238 जैसी किस्में भी देरी से बुवाई के लिए उपयुक्त रहती हैं। इन किस्मों की बुवाई 31 दिसंबर तक कर देना चाहिए, ताकि फसल को उचित समय और तापमान मिल सके।
बुवाई के तुरंत बाद खेत में 15–20 मीटर की दूरी पर आड़ी और खड़ी नालियां बनाना लाभकारी रहता है। इन्हीं नालियों के माध्यम से सिंचाई करने से पानी का समान वितरण होता है और पौधों की जड़ें मजबूत बनती हैं। देरी से बुवाई की स्थिति में सिंचाई का अंतराल 17–18 दिन रखना चाहिए और लगभग चार सिंचाइयां पर्याप्त मानी जाती हैं।
कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, देर से बुवाई में गेहूं के लिए नत्रजन, फास्फोरस और पोटाश 100:50:25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई से पहले मिट्टी में मिला देनी चाहिए। शेष नत्रजन पहली सिंचाई के साथ देना बेहतर रहता है। ध्यान रखें कि यूरिया का छिड़काव उतने ही क्षेत्र में करें, जहां उसी दिन सिंचाई की जा सके।
यदि किसान आलू या प्याज के बाद दिसंबर के अंत तक गेहूं की बुवाई कर रहे हैं, तो सही किस्म का चयन और वैज्ञानिक तरीके से खेती करना बेहद जरूरी है। ऊपर बताई गई लेट सॉइंग गेहूं किस्में कम समय में अच्छी पैदावार देकर किसानों की आय बढ़ाने में मदद कर सकती हैं। सही प्रबंधन के साथ पछेती बुवाई भी फायदे का सौदा बन सकती है।
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